शुक्रवार, अक्तूबर 08, 2010

आग नहीं तो कविता नहीं

समीक्षा/लिखे में दुक्ख/लीलाधर मण्डलोई
आग नहीं तो कविता नहीं
समकालीन हिन्दी कविता में इन दिनों एक साथ तीन-चार पीढ़ी के कवि लगातार सक्रिय हैं और युवा कविता के सन्दर्भ में तो एक जबरजस्त उफान-सा नजर आ रहा है, कविता इतनी ज्यादा है कि कविता में कविता के होने और कविता के कविता होने को लेकर एक बहस पैदा हो गई है। एक स्वाभाविक प्रश्‍न भी उठने लगा है कि क्या हमारे समाज को इतनी (मात्रा) कविता की आवश्‍यकता है? हाँ, अगर कवितायें हमारे समय के सबसे समर्थ कवि लीलाधर मण्डलोई की हैं, जिनकी संवेदना के संसार में सबकुछ आता है मामूली से मामूली पत्ता भी और सर्वशक्तिमान होने का दंभ भरने वाली सत्ता भी। वरिष्ठ कवि लीलाधर मण्डलोई हमारे समय के उन गिने चुने कवियों में है, जिन्होंने अपने जीवनानुभवों में कविता को न सिर्फ जीया है बल्कि कविता को इस कठिन कविता समय में बचाए भी रखा है। उनकी कविता यात्रा ‘घर-घर घुमा’ से लेकर समीक्ष्य संग्रह ‘लिखे में दुक्ख’ तक फैली है और खुशी की बात है कि अनथक जारी है।
इस संग्रह की सभी कविताएँ आकार में छोटी हैं मगर विचारों से लैस, विषय वैविध्य से भरपूर और अपने अर्थों में सम्पूर्ण भी हैं। इन छोटी कविताओं के प्रकाशन के साथ मण्डलोईजी जैसे बहुपठित कवि ने एक किस्म का जोखिम भी उठाया है, ऐसे समय में जब आधुनिक कविता में गद्य का वितान बढ़ता जा रहा है और अमूमन लम्बी कविता लिखने का प्रचलन सा बन पड़ा है। कवि ने छोटी कविताओं का जोखिम उठाया है, कवि के इस जोखिम को संग्रह के फ्लैप पर वरिष्ठ कवि विष्णु नागर ने नोटिस करते हुए लिखा भी है कि- ‘‘जीवनानुभवों से लैस कवि ही कविता में खतरे उठा सकता है, बाकि अपनी और दूसरों की बनाई लीक पर चलते रहते हैं और खुश रहते हैं...... मंडलोई ने.....उस मुकाम पर आकर खतरा उठाया है जब कवि खतरे उठाना बंद करके पुरानी कमाई को भुनाने में लग जाते हैं।’’
बहरहाल संग्रह की अधिकांश कविताओं में जिंदगी जीने के 'ढब' की तलाश है तो अदम्य जिजीविषा भी सन्निहित है-
‘‘बार-बार कुचले जाने पर भी
खड़ी होकर
अपने होने की घोषणा करती है
जैसे दूब
हम उसी कुल के हैं।’’ (कुल, पृ। 30)
छोटी कविता कितने बड़े अर्थों में खुद को ध्वनित कर सकती है, देखिये-
‘‘जिनका सिरहाना
ताउम्र
पत्थर रहा हो
उन्हें तकिये पर नींद
नहीं आती
पत्थर की कोमलता
हर कोई नहीं जानता।’’ (कोमलता, पृ। 17)
‘बाजार, हिंसा के स्थल हैं’ (पृ. 83) बावजूद सजग कवि बाजार में निवेश का जानबुझकर जोखिम उठाता है-
‘‘जीवन के कुछ ऐसे शेयर थे
बाजार में
जो घाटे के थे लेकिन
खरीदे मैंने।’’ (शेयर, पृ। 39)
मगर इस निवेश के घाटे में जो सुख है, वह अपने में आनंददायक और खास है, फिर भले ही इसे मूर्खतापूर्ण करार दिया जाये जैसा कि कवि एक अन्य कविता ‘तरलता’ में कहता भी है-‘मेरी तरलता मूर्खताओं से बनी है ’ (पृ। 90)
कवि की कविता यात्रा में उनकी ग्राम्य जीवन की अनुभूतियाँ, स्मृतियाँ और उसके सुखों-दुक्खों का मर्म भी है जिसमें ‘रूलाई की स्मृति सबसे गाढ़ी है ’ तो अतिसूक्ष्म संवेदनाओं की विरल व्याख्या भी है-
‘‘अस्थियों को कहा होगा जिसने फूल
देखा होगा उसी ने
मनुष्य के भीतर का फूल’’ (फूल, पृ। 13)
‘यह दुनिया छोड़ दी हमने/चोरों के भरोसे’ (पृ. 61) कहकर कवि ने आदमी को लताड़ा है तो ‘ईश्‍वर का धंधा कभी घाटे में नहीं चलता’ (पृ. 100) जैसी तीखी बात कहकर ईश्‍वर को भी नहीं बख्शा है।
‘मुल्क यकीनन बदल रहा है’ मगर यह बदलाव और प्रगति जिन मूल्यों पर है, दरअसल कविता की असली जिद इन्हें ही बचाए रखने की कोशिश है। इस बाजार समय में ‘जबकि जीना हो चला है /कठिन’, ऐसे समय में सिर्फ कविता ही इन प्रभुतावादी ताकतों के खिलाफ खड़े होने की कुव्वत रखती है और ‘देखो, अमरीका घुसा आ रहा है जबरन’ जैसी बात कहने की ताकत रखती है। और कविता से ऐसा कहने की उम्मीद भी की जानी चाहिए क्योंकि ‘आग नहीं तो कविता नहीं।’
कविता निज की अभिव्यक्ति, स्मृतियों का आख्यान या सौन्दर्यबोध का आग्रह भर नहीं होती, वह किसी एक की नहीं, एक के बहाने अनेक की, यहाँ तक कि सारी मनुष्यता की बात करती है। सारी मनुष्यता के दुःखों, अभावों को उजागर करती है और यदि ऐसा नहीं है तो कविता के कविता होने के प्रति कवि को संशय है-
‘‘मेरे लिखे में
अगर दुक्ख है
और सबका नहीं
मेरे लिखे को आग लगे।’’ (लिखे में दुक्ख, पृ। 92)
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संग्रह का नामः लिखे में दुक्ख
कविः लीलाधर मण्डलोई
प्रकाशकः राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्यः 150/-
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संग्रह से कुछेक कविताएं
भाषा
मैं लिखता हूं
उस भाषा में
जो
मुझे जानती है
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मंत्र
श्रमिक होती हैं मधुमक्खियां
फूलों से पराग
और मकरंद करती हैं इकट्ठा
अपने टांगों में बनी
उस टोकरी में
जो दीखती नहीं
मधुमक्खियां तैयार
करती हैं शहद
और करती हैं रक्षा
बाहरी आक्रमण से उसकी
घिरे हुए हैं हम अनेक दुश्‍मनों से
और रक्षा नहीं कर पाते
हमने मधुमक्खियों से सीखा नहीं यह मंत्र
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खरपतवार
मेरा कोई खेत नहीं
मैं दोस्‍तों के खेतों में
करता था काम
जैसे मां
फसल आने पर
मैं खेत से बाहर था
जैसे खरपतवार
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गांठ
यह बड़ी मजबूत गांठ है
एक गरीब की लगाई गांठ खोलना
इतना आसान नहीं
इसे खोले बिना अच्‍छी कविता लिखना
नामुमकिन है
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चमत्कार
नटिनी के पांवों में चमत्‍कार है
लोग उसका
चलना नहीं
फिसलना देखना चाहते हैं
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शर्म की बात
यह साधारण घटना नहीं
शर्म की बात है-राम
कि एक स्‍त्री ने
प्रतिरोध में
धरती की शरण ली
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किताब
वह बुश के समय की किताब है
इसमें नहीं है
कोई दुक्‍ख
कोई अंधेरा
इसमें क्‍या है ?
जानते हैं जो लोग
वे चमकदार अंधेरा चाहते हैं
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हथियार
सच अप्रिय होता है
यह कोई नहीं जान पाएगा कि
मैं मरूंगा इसी के साथ
दोस्‍त नहीं समझ पायेंगे
कि मैं उनके हिस्‍से की लड़ाई
इसी हथियार से लड़ रहा हूं
जब मैं लड़ाई के मैदान में हूं
वे सच की झूठी लड़ाइयों में मुब्‍तला हैं
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लिखे में दुक्‍ख
मेरे लिखे में
अगर दुक्‍ख नहीं
और सबका नहीं
मेरे लिखे को आग लगे
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आग
मेरी मेज पर
टकराते हैं
शब्‍द से शब्‍द
एक चिंगारी उठती है
और कविता में आग की तरह
फैल जाती है
आग नहीं तो कविता नहीं
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