सोमवार, नवंबर 09, 2009

निमाड़ उत्सव: लोक कला की उपेक्षा और अवहेलना की निरंतरता

निमाड़ी कला–संस्कृति–साहित्य के संगम और हमारी लोक बोली–बानी की अभिरक्षा के संकल्प के साथ शुरू हुआ ‘निमाड़–उत्सव’ प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी नर्मदा तट पर आयोजित हो रहा है। डेढ़ दशक पुराने इस उत्सव को राज्य सरकार की आर्थिक सहायता और संरक्षण भी मिलता है। यह उत्सव इन अर्थों में भी उल्लेखनीय हो जाता है कि निमाड़ांचल की जन संस्कृति और लोक विरासत का यह एकमात्र वृहद अवसर मंच है। इसीलिए तीन दिवसीय इस आयोजन से निमाड़ के साहित्य और कलाप्रेमियों को यह उम्मीद रहती है कि यह उत्सव निमाड़ी लोक जीवन की उत्कृष्ट छवि को बड़े परिदृश्य पर सामने लाने का सार्थक माध्यम साबित होगा किन्तु वर्ष–दर–वर्ष उत्सव का गिरता स्तर और सामान्यीकरण अब अंचल के कलाधर्मियों की चिंता और चर्चा का विषय भी बन गया है। निमाड़ उत्सव में दूसरे प्रदेशों के गायन और नृत्य–दल भी आते है। इस तरह की प्रदर्शन कलाओं से एक–दूसरे की संस्कृति और कला को समझने के अवसर बढ़ते हैं। यह एक किस्म का सांस्कृतिक आदान–प्रदान है। लेकिन स्थानीय कलाकारों की उपेक्षा के चलते यह कभी संभव नहीं हो सकता है। और ना ही सार्थक।‘निमाड़–उत्सव’ निमाड़ का प्रतिनिधि आयोजन बन सकता है। आयोजन को लेकर प्रशासकीय तत्परता और राजनीतिक चहल–पहल तो देखने को मिलती है लेकिन अंचल के स्थानीय कलाकारों की उपेक्षा हर बार बहस का विषय बन जाती है। क्षेत्र में कई लोक विधाएँ है और उनके पारंगत कलाकार है। संपूर्ण निमाड़ांचल के साहित्यिक, सांस्कृतिक कलामंचों की इस आयोजन में अनुपस्थिति संभवत: इसी ओर संकेत भी करती है और इस आयोजन पर प्रश्नचिन्ह भी ? क्या यह उत्सव महज प्रशासनिक औपचारिकता भर रह गया है? क्या कारण है कि इतने वर्षों में भी ‘निमाड़–उत्सव’ प्रदेश और देश में तो दूर की बात, निमाड़ के ही कलाधर्मियों में पर्याप्त लोकप्रियता और आत्मीयता हासिल नहीं कर पाया है ? स्थानीय दर्शकों की मामूली–सी उपस्थिति के अतिरिक्त दर्शक दीर्घा में सिफ‍र् राजनीतिक और प्रशासकीय अफसरों की उपस्थिति तक ही यह उत्सव आखिरकर क्यों सिमटकर रह गया है? निमाड़ी बोली का क्षेत्र काफी व्यापक है। खरगोन, बड़वानी, खण्डवा के अतिरिक्त यह बुरहानपुर और धार के कुछ हिस्से में भी यह व्यवहार में लाई जाती है। इतने व्यापक क्षेत्र के संस्कृति प्रेमियों की अनुपस्थिति क्या कुछ अहम सवाल नहीं खड़ा करती है। आयोजन समिति क्षेत्र में कार्यरत विभिन्न सांस्कृतिक व साहित्यिक संस्थाओं और कला संगठनों को किसी प्रकार की कार्यक्रम पूर्व सूचना या रूपरेखा नहीं भेजती है। न उन संस्थाओं को सहभागिता के लिए प्रेरित किया जाता है। संभवत: आयोजन समिति ऐसे किसी प्रयास की पहल तक भी नहीं करती है। साथ ही सप्रयास सांस्कृतिक सहभागिता के सांगठनिक प्रयास को उपेक्षित भी करती है। इसके पीछे छुपे आशय और निहितार्थ संभवत: राजनीति से प्रेरित भी हो सकते हैं। निमाड़ उत्सव जैसे आयोजन ‘लोक’ के पारम्परिक स्वरूप को प्रस्तुत करने के साथ ही ‘लोक’ के समृद्ध और वैभवशाली रूप को जन साधारण से परिचय कराते हुए उसकी प्रतिष्ठा का महत्वपूर्ण कारक भी बनते हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार के दबाव के चलते हुए ‘लोक’ के खोते जा रहे पारम्परिक सम्मान और गरिमा को बचाने के प्रयास भी इसी तरह के आयोजन के चलते हो सकते हैं लेकिन यह अचरज और दु:ख की बात है कि लोक कला, संस्कृति और बोली का प्रतिष्ठित आयोजन बोली के साथ सौतेला व्यवहार करता है। एक छोटे से हॉल में उपेक्षित समय में जनपदीय बोली का कवि सम्मेलन और घाट पर पूरे ताम–झाम और भव्यता के साथ भाषा का मंचीन कवि सम्मेलन, परिषदों के बोली के साथ अपमान और उपेक्षा का अशालीन व्यवहार ही दिखाता है। खासकर तब जब आयोजन लोक कला, संस्कृति और बोली को समर्पित हो। जनपदीय कवि सम्मेलन के कवियों के और घाट पर भाषा के मंचीय कवि सम्मेलन के कवियों के पारिश्रमिक में भी भारी अंतर है। आमंत्रित जनपदीय कवि भी भाषा और बोली के जानकार और उच्च शिक्षित होते हैं। जबकि यह सर्वविदित है कि भाषा के मंचीय अधिकांश कवियों को साहित्यिक दर्जा कभी नहीं मिल पाया। इन दिनों अधिकांशत: मंचों पर भाषा के भ्रष्ट कवि तृतीय श्रेणी की सस्ती और फुहड़ तुकबंदियाँ ही सुनाते हैं और कवि सम्मेलन की सम्मानीत परम्परा को ‘लाफ्टर–शो’ में बदलने का अशोभनीय हुनर दिखाते हैं। इनमें से अधिकांश को भारी पारिश्रमिक मात्र इनके व्यावसायिक कौशल के आधार पर मिलता है, न कि प्रतिभा के आधार पर। .....बहरहाल साहित्य परिषद और आदिवासी लोक परिषदों के गैर जरूरी हठ और अफसरी दम्भ के चलते एक आयोजन की प्रतिष्ठा धूमिल हो रही है।

बुधवार, अक्तूबर 21, 2009

मीडिया खड़ा बाजार में

तकनीक ने आचार-विचार से व्यवहार तक जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित किया है. नित नये परिवर्तन देखने को मिल रहे है. चीजें बाज़ार में आ रही हैं और कुछ ही समय में ‘आउट ऑफ डेट’ करार दी जाकर व्यवहार से बाहर हो रही है. एक समय था जब हमारी जरूरतें ही तय करती थी, बाज़ार में क्या नया होना चाहिए और कौन-सी चीज़ अब समयानुकूल नहीं रही है, लेकिन अब चौतरफा बाज़ार का दखल है. दखल इतना कि आम से लेकर ख़ास तक कोई भी इसके संक्रमण से बच नहीं पाया. बाज़ार ने आज परिभाषाएँ ही बदल कर रख दी है. अब बाज़ार ही तय करता है, आपकी जरूरतें क्या है ? कौन-सी चीज आपके घर में नहीं होगी तो आप समाज में उठने-बैठने लायक नहीं समझे जायेंगे. कौन-सी चीज इस्तेमाल करेंगे तो आप पिछड़े हुए माने जायेंगे. बाज़ार ने आदमी को पूरी तरह ‘कमर्षियल’ बना दिया है. दूसरी तरफ से सोचे तो दरअस्ल बाज़ार ने आदमी की उपयोगिताएँ एवं सीमाएँ तय कर दी हैं. आदमी की सोच में अपनी गणितीय फार्मूले ‘फिट’ कर दिये हैं. लाभ-हानि का ‘परसेन्टेज’ व्यवहार में ला खड़ा कर दिया है. शायद ये गाली होगी परन्तु इससे बड़ा सच भी क्या होगा कि आज आदमी बाज़ारू हो गया है. बाज़ार जाता है तो बाज़ार ही घर ले आता है. इसी बाज़ारू सोच का नतीजा है कि आज एक आदमी के लिए दूसरा आदमी महज़ ‘प्रोडक्ट’ भर रह गया है. कल तक बाज़ार का अपना दायरा सीमित था लेकिन बाज़ार के पास थी महत्वकांक्षा. और इसी महत्वकांक्षा के लिए उसे जरूरत थी मीडिया की. मीडिया ने भी लगे हाथ मौके को भुनाया और बहती गंगा में खूब गोते लगाए. लेकिन बाज़ार का अपना एक चरित्र होता है. और बाज़ार ने अपने इसी चरित्र का रंग दिखाया. आज स्थिति ये है कि बाज़ार की चकौचौंध में मीडिया अपनी वास्तविक द्युति खो बैठा है. मीडिया में सच को उजागर करने वाली परिभाषा तो आज भी कायम है लेकिन खबर की सामाजिक एवं नैतिक जरूरतें लगभग गौण हो गई है. यही बाज़ार का असली चेहरा है. मीडिया में आज (षायद ही) खबर के इस पक्ष पर कम ही विचार किया जाता है, इस बात को ज्यादा तरज़ीह दी जाती है कि यह हमारे प्रतिस्पर्धियों के मुकाबिल हमें कितनी ज्यादा टीआरपी देगी. खबर यदि सनसनीखेज़ या चटपटी हो तब तो फिर क्या कहने! चौबिसों घण्टे खबर को लाग-लपेट कर परोसा जाता है. कुछ इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जैसे वह उस तात्कालिन समय की सबसे बड़ी खबर है और इतिहास के पन्नों में इसे बड़ा महत्व दिया जाएगा. भले ही इस खबर से समाज का कोई भी वर्ग लाभान्वित न हो रहा हो, सिवाय इसके कि खबर में ‘मसाला’ है. एक दृष्य ले- पति-पत्नी का झगड़ा आम बात है. हर किसी को अपने पड़ोस में लगभग रोज ही देखने को मिल जाता है लेकिन भई झगड़े की वीडियो रिकार्डिंग या जीवंत तस्वीरें! क्या भरपूर मनोरंजक दृष्य है! वाह क्या मजेदार सीन है! देखो पत्नी ने भी पति को दो जमा दिए! हे भगवान! ये पति है या जल्लाद! गभर्वती पत्नी को भी लात मार दी! एक अन्य दृष्य ले- अभी ताजा ही मामला है एक अभिनेता ने शुटिंग के दौरान अष्लील इषारे करने पर एक मामूली से दर्षक को थप्पड़ रसीद कर दिया. अभिनेताजी भारतीय संसद के सम्माननीय सदस्थ भी थे. पड़ गया मीडिया पीछे! आखिर थप्पड़ मारा तो मारा ही क्यों ? मार खाने वाला भी सूर्खियों में छा गया! वहीं अभिनेता जो डेढ़ सौ ज्यादा फिल्मों में डेढ़ हजार से ज्यादा लोगों को लात-घूँसें मारकर सुपरस्टार बना. आज असल जिंदगी में किसी अपराध को देखकर सिर्फ एक थप्पड़ मारने पर मीडिया की ऑंख में किरकिरी बन गया! बड़ी बात तो ये कि हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक फैले इस विषाल देष में दिनभर की सबसे बड़ी खबर यही थी! एक अन्य दृष्य और ले- तीन दिन से मीडिया एक गहरे गड्डे में ऑंखें गड़ाये हुए है. एक बच्चे ने पूरे सौ करोड़ लोगों की आस्थाओं को झकझोर कर रख दिया है. राष्ट्रीय राजनीति तक को प्रभावित कर दिया है. बच्चा ‘नेषनल हीरो’ बन गया है. दुर्घटना स्थल ‘राष्ट्रीय ग्राम’. ठीक उन्हीें तीन दिनों में देष के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति ने क्या किया ? कौन-कौन सी महत्वपूर्ण बैठकें की ? यात्राएँ की ? किन-किन विदेषी डेलिगेट्स से मुलाकातें की ? इन वार्ताओं का आम जीवन पर क्या प्रभाव हो सकता है ? राष्ट्र के लिए या भविष्य के लिए ये कितनी हितकर साबित होंगी ? देश के चार दर्जन से ज्यादा केन्द्रीय मंत्रियों और दो दर्जन से ज्यादा राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इन तीन दिनों तक सैर-सपाटा ही किया! या समाज के लिए किसी नयी योजना पर विचार भी किया ! या किसी परियोजना को क्रियान्वित भी किया! ठीक उन्हीं तीन दिनों में सीमा पर जवानों की शहादत खबरों में कोई स्थान नहीं बना पाती! अरे भई्! एैसी खबरों के क्या मायने ? एैसी खबरों को कितने दर्षन मिलेंगे! कितने पाठक जुटा पाऐंगे ऐसे समाचार! हाँ, बाज़ार ने मीडिया के कानों में पहले से फूक जरूर मार रखी है. जवाब तैयार है. ”आखिर हमें भी बाज़ार में बने रहना है.” मीडिया के वरदान से ही फला-फूला बाज़ार आज मीडिया के लिए भस्मासुर साबित हो रहा है. इसीलिए शायद कल तक जिस बाज़ार को मीडिया ने फैलाया था आज उसी बाज़ार में खुद मीडिया खड़ा है. हालाँकि इस लेख के माध्यम से मैं मीडिया को किसी कटघरे में नहीं खड़ा कर रहा हूँ. अपितु मैं व्यक्तिगत तौर पर मीडिया का बड़ा सम्मान करता हूँ शायद इसीलिए भी समाज के इस दिग्दर्षक का दिषाहीन रूख मुझे (सिर्फ मुझे ही क्या) कुछ कचोटता भी है. दरअस्ल मीडिया को अपने दायित्व पर पुन: गंभीरता से विचारना चाहिए. उसे बाज़ार की इस चाल से प्रभावित हुए बिना (जो कि बड़ा मुष्किल लगता है) अपनी भी कुछ गरिमा बनाए रखनी चाहिए. आखिर तो आज भी मीडिया ही समाज का दर्पण है. वह जैसा दिखाएगा, सच वही स्वीकार किया जाएगा. मीडिया यदि किसी व्यक्ति को अपराधी की तरह प्रस्तुत करेगा तो वह उसी वक्त से समाज में अपराधी की दृष्टि से देखा जाएगा और यदि किसी अपराधी को मीडिया मासूम की तरह प्रस्तुत करेगा तो समाज में उसके प्रति सहानुभूति भी स्वत: ही उपजेगी. इसलिए या तो मीडिया खुद तय करे, वह क्या परोसे (और यह नैतिकता भी उसी की है) अन्यथा तो फिर बाज़ार उसे बता ही रहा है कि उसे क्या प्रस्तुत करना है ?