कथन – अंक 71, संपादक - संज्ञा उपाध्याय
‘हर अंक एक विशेषांक’ प्रस्तुत करने वाली हिन्दी की इस शीर्ष पत्रिका के अंक में कविता के लिए इस बार कुछ ज्यादा ‘स्पेस’ है. वरिष्ठ कवि विजेन्द्र, ज्ञानेन्द्रपति, रामदरश मिश्र के साथ यश मालवीय के 4 नवगीत हैं. युवा कवि नीलोत्पल की एक ताजा कविता ‘हम खड़े हैं कटे पेड़ों के नीचे’ उम्दा हैं. विशेष प्रस्तुति में वरिष्ठ कवि लीलाधर मण्डलोई ने हरिओम राजौरिया की कविताओं को प्रस्तुत करते हुए लिखा है, -‘हरिओम की कविताओं में एक बात गौरतलब है-सीधी पहुंच बनाने वाली भाषा’. ... ‘कथन’ के इस अंक में हरेप्रकाश उपाध्याय की प्रेम कविताएं भी हैं. हरेप्रकाश इन दिनों खूब प्रेम कविताएं लिख रहे हैं. ‘बुराई के पक्ष में’ शंखनाद के साथ कविता लिखने वाला कवि धड़ाधड़ प्रेम कविताएं लिख रहा है, इन दिनों में मन में यही सवाल है !
समावर्तन – अंक 40, संपादक – मुकेश वर्मा
‘समावर्तन’ की विशेष उपलब्धि है निरंजन श्रोत्रिय द्वारा प्रस्तुत रेखांकित रचनाकार स्तम्भ. इस बार प्रस्तुत हैं युवा कवि ‘प्रांजल धर’. बकौल संपादक, -‘प्रांजल की कविताएं सामान्य विषयों के साथ भी एक भिन्न आस्वाद देती हैं, जो उन्हें अपने समकालीनों से इस मायने में अलग करती हैं कि संवेदनों की सघनता और भाषा-शिल्प के ट्रीटमेंट के साथ किसी कविता के सरोकार को व्यापक कैसे बनाया जाता है।’
कथादेश – अंक जुलाई 2011, संपादक – हरिनारायण
कविता के लिए मात्र दो पृष्ठ की वो भी असुरक्षित जगह देने वाली ‘कथादेश’ के इस अंक में प्रकाशित एक कविता ‘वे जो थीं’ ने इस बार विशेष आकर्षित किया. कवि सुरेश सेन निशांत को बधाई।
विपाशा – अंक 26, संपादक – तुलसी रमण
‘विपाशा’ के पिछले कविता विशेषांक की अनुगूंज इस अंक में सुनाई देती हैं. वाकई ‘विपाशा’ का प्रयास सबसे बेहतरीन रहा. बहरहाल इस अंक में अनुवादक अशोक पाण्डे ने विश्व कविता के छः कवियों की कुछ बेहतरीन कविताओं को प्रस्तुत कर शासकीय पत्रिका के इस अंक को भी संग्रहणीय बना दिया है. इसी अनुवाद से एक कवितांश-
‘’लेकिन यकीन करो बेटे /
मैं चाहता हूं वह बनना जो मैं था जब मैं तुम जैसा था. चाहता हूं भूल जाऊं /
इन तमाम शब्दहीन बना देने वाली बातों को. /
सबसे पहले तो ये /
कि मैं दोबारा हॅंसना सीखना चाहता हूं /
क्योंकि आईने में मेरी हॅंसी सिर्फ मेरे दांत दिखाती है /
किसी सांप की नंगी जीभ जैसे.’’
वागर्थ – अंक जुलाई 2011, संपादक – एकांत श्रीवास्तव
केदारनाथ अग्रवाल की कविता ‘वह चिडिया जो’ पर संपादक ने अपने स्तम्भ ‘वातायन’ में इस कविता के मूल्य को रेखांकित करते हुए लिखा है, -‘यह कविता, मनुष्य की मुक्ति के लिए एक गान की तरह ही देखी, सुनी और पढ़ी जानी चाहिए।’
पाण्डुलिपि विमर्श – अंक 4, संपादक – विश्वरंजन, कार्यकारी संपादक – जयप्रकाश मानस
मात्र 25 रूपये के किफायती मूल्य में 400 से ज्यादा पृष्ठ की इस पत्रिका ने महज 4 अंक में अपनी उपस्थिति से हिन्दी में व्यापक हलचल पैदा की है. पाण्डुलिपि के इस अंक में एक कविता संग्रह भर की कविताओं का संकलन है, जिनमें सुमन केशरी, हरीश भादानी, सुधा अरोड़ा, मनमोहन, राजकुमार सोनी, अमित कल्ला जैसे नाम भी हैं. इसके अतिरिक्त युवा कवि प्रेमरंजन अनिमेष ने विभिन्न प्रमाण-पत्रों को आधार बनाकर विशेष प्रयोगात्मक कविताएं लिखी हैं. भाषांतर में अनुवादक मनोज पटेल ने दून्या मिखाइल की कुछ उम्दा कविताओं को प्रस्तुत किया है. मिखाइल की एक कविता ‘पांच मिनट’ विशेष आकर्षण है।
रचनाक्रम – अंक 2, संपादक – अशोक मिश्र
रचनाक्रम ने अपने पहले ही अंक से पाठकों को यह विश्वास दिलाया कि वह सृजनात्मकता और नए विचारों से लैस पत्रिका है. कविता खण्ड में रंजना जायसवाल और रामकुमार आत्रेय की कविताओं के अतिरिक्त युवा कवि कुमार अनुपम की 4 उम्दा कविताएं हैं. ‘इस अशीर्षक समय में’ अनुपम की कविताएं उम्मीद और ताजगी से भरी हैं. इसी अंक में युवा कवि भरत प्रसाद को ‘मेढ़की आलोचना का अहंकार’ जरूर पढ़ा जाना चाहिए।
पूर्वग्रह – अंक 131-132, अतिथि संपादक – रमेशचन्द्र शाह
जन्म शताब्दी की श्रृंखला में अज्ञेय पर केन्द्रीत ‘पूर्वग्रह’ का यह अंक विशेष महत्व का है. ‘अज्ञेय की कविताः पुनर्पाठ’ में प्रकाशित आलेख अज्ञेय की जीवन दृष्टि और साहित्य में उनके स्थान और महत्व को रेखांकित करते हैं. वरिष्ठ कवि श्री शाह ने यह अंक अतिरिक्त श्रम के साथ संपादित किया है।
बया – अंक 13, संपादक – गौरीनाथ
‘बया’ ने कविता के साथ इस अंक में अन्याय किया है. उम्मीद है अगले अंकों में इसकी भरपाई जरूर होगी।