गुरुवार, नवंबर 04, 2010

साधारण में असाधारण

कुछ दिनों पहले की बात है, जगदलपुर (छत्तीसगढ़) निवासी मेरे एक मित्र योगेन्द्रसिंह राठौर ने समकालीन कविता पर एक चर्चा के दौरान एक कविता जो उन्हें मौखिक याद थी, सुनाई थी और कहा था कि एक अच्छी कविता साधारण में भी असाधारण कह जाती है. यह कविता अग्रज कवि बोधिसत्व की थी. जो उनके नये कविता संग्रह ‘खत्म नहीं होती बात’ में भी शामिल है. कविता का शीर्षक है –‘कोहली स्टूडियो’।
कोहली स्टूडियो
भाई बहुत सुन्दर नहीं था
पर चाहता था दिखना सुन्दर
शादी के लिए भेजनी थी फोटो
उसे सुन्दर बनाया
कोहली स्टूडियो ने
ब्लैक एंड व्हाइट फोटो से
कुछ दिनों बाद
भाई के लिए आई एक
सुन्दर फोटो देखने के लिए
जिसे सबने सराहा देर तक
शादी तय हुई भाई की
उसी फोटो वाली सुन्दर लड़की से
भाई की असुन्दरता पकड़ी गई
फेरे पड़ने के बाद,
भाभी भी बस थी ठीक-ठाक
नाक की जगह ही थी नाक
कोहबर में दोनों ने एक-दूसरे को फोटो से
कम सुन्दर पाया
दोनों को बहुत सुन्दर दिखना था
दोनों ने कोहली स्टूडियो से
फोटो खिंचवाया
दोनों को कोहली स्टूडियो ने
सुन्दर दिखाया
ब्लैक एंड व्हाइट फोटो से
आज सब कुछ रंगीन है
फिर भी भाभी के कमरे में
टंगी है वही शादी के बाद
कोहली स्टूडियो से खिंचवाई
ब्लैक एंड व्हाइट फोटो
कोहली ने न जाने कितनों को
सुन्दर बनाया है
न जाने कितनों को बसाया है
अपने ब्लैक एंड व्हाइट फोटो से
000

शुक्रवार, अक्तूबर 08, 2010

आग नहीं तो कविता नहीं

समीक्षा/लिखे में दुक्ख/लीलाधर मण्डलोई
आग नहीं तो कविता नहीं
समकालीन हिन्दी कविता में इन दिनों एक साथ तीन-चार पीढ़ी के कवि लगातार सक्रिय हैं और युवा कविता के सन्दर्भ में तो एक जबरजस्त उफान-सा नजर आ रहा है, कविता इतनी ज्यादा है कि कविता में कविता के होने और कविता के कविता होने को लेकर एक बहस पैदा हो गई है। एक स्वाभाविक प्रश्‍न भी उठने लगा है कि क्या हमारे समाज को इतनी (मात्रा) कविता की आवश्‍यकता है? हाँ, अगर कवितायें हमारे समय के सबसे समर्थ कवि लीलाधर मण्डलोई की हैं, जिनकी संवेदना के संसार में सबकुछ आता है मामूली से मामूली पत्ता भी और सर्वशक्तिमान होने का दंभ भरने वाली सत्ता भी। वरिष्ठ कवि लीलाधर मण्डलोई हमारे समय के उन गिने चुने कवियों में है, जिन्होंने अपने जीवनानुभवों में कविता को न सिर्फ जीया है बल्कि कविता को इस कठिन कविता समय में बचाए भी रखा है। उनकी कविता यात्रा ‘घर-घर घुमा’ से लेकर समीक्ष्य संग्रह ‘लिखे में दुक्ख’ तक फैली है और खुशी की बात है कि अनथक जारी है।
इस संग्रह की सभी कविताएँ आकार में छोटी हैं मगर विचारों से लैस, विषय वैविध्य से भरपूर और अपने अर्थों में सम्पूर्ण भी हैं। इन छोटी कविताओं के प्रकाशन के साथ मण्डलोईजी जैसे बहुपठित कवि ने एक किस्म का जोखिम भी उठाया है, ऐसे समय में जब आधुनिक कविता में गद्य का वितान बढ़ता जा रहा है और अमूमन लम्बी कविता लिखने का प्रचलन सा बन पड़ा है। कवि ने छोटी कविताओं का जोखिम उठाया है, कवि के इस जोखिम को संग्रह के फ्लैप पर वरिष्ठ कवि विष्णु नागर ने नोटिस करते हुए लिखा भी है कि- ‘‘जीवनानुभवों से लैस कवि ही कविता में खतरे उठा सकता है, बाकि अपनी और दूसरों की बनाई लीक पर चलते रहते हैं और खुश रहते हैं...... मंडलोई ने.....उस मुकाम पर आकर खतरा उठाया है जब कवि खतरे उठाना बंद करके पुरानी कमाई को भुनाने में लग जाते हैं।’’
बहरहाल संग्रह की अधिकांश कविताओं में जिंदगी जीने के 'ढब' की तलाश है तो अदम्य जिजीविषा भी सन्निहित है-
‘‘बार-बार कुचले जाने पर भी
खड़ी होकर
अपने होने की घोषणा करती है
जैसे दूब
हम उसी कुल के हैं।’’ (कुल, पृ। 30)
छोटी कविता कितने बड़े अर्थों में खुद को ध्वनित कर सकती है, देखिये-
‘‘जिनका सिरहाना
ताउम्र
पत्थर रहा हो
उन्हें तकिये पर नींद
नहीं आती
पत्थर की कोमलता
हर कोई नहीं जानता।’’ (कोमलता, पृ। 17)
‘बाजार, हिंसा के स्थल हैं’ (पृ. 83) बावजूद सजग कवि बाजार में निवेश का जानबुझकर जोखिम उठाता है-
‘‘जीवन के कुछ ऐसे शेयर थे
बाजार में
जो घाटे के थे लेकिन
खरीदे मैंने।’’ (शेयर, पृ। 39)
मगर इस निवेश के घाटे में जो सुख है, वह अपने में आनंददायक और खास है, फिर भले ही इसे मूर्खतापूर्ण करार दिया जाये जैसा कि कवि एक अन्य कविता ‘तरलता’ में कहता भी है-‘मेरी तरलता मूर्खताओं से बनी है ’ (पृ। 90)
कवि की कविता यात्रा में उनकी ग्राम्य जीवन की अनुभूतियाँ, स्मृतियाँ और उसके सुखों-दुक्खों का मर्म भी है जिसमें ‘रूलाई की स्मृति सबसे गाढ़ी है ’ तो अतिसूक्ष्म संवेदनाओं की विरल व्याख्या भी है-
‘‘अस्थियों को कहा होगा जिसने फूल
देखा होगा उसी ने
मनुष्य के भीतर का फूल’’ (फूल, पृ। 13)
‘यह दुनिया छोड़ दी हमने/चोरों के भरोसे’ (पृ. 61) कहकर कवि ने आदमी को लताड़ा है तो ‘ईश्‍वर का धंधा कभी घाटे में नहीं चलता’ (पृ. 100) जैसी तीखी बात कहकर ईश्‍वर को भी नहीं बख्शा है।
‘मुल्क यकीनन बदल रहा है’ मगर यह बदलाव और प्रगति जिन मूल्यों पर है, दरअसल कविता की असली जिद इन्हें ही बचाए रखने की कोशिश है। इस बाजार समय में ‘जबकि जीना हो चला है /कठिन’, ऐसे समय में सिर्फ कविता ही इन प्रभुतावादी ताकतों के खिलाफ खड़े होने की कुव्वत रखती है और ‘देखो, अमरीका घुसा आ रहा है जबरन’ जैसी बात कहने की ताकत रखती है। और कविता से ऐसा कहने की उम्मीद भी की जानी चाहिए क्योंकि ‘आग नहीं तो कविता नहीं।’
कविता निज की अभिव्यक्ति, स्मृतियों का आख्यान या सौन्दर्यबोध का आग्रह भर नहीं होती, वह किसी एक की नहीं, एक के बहाने अनेक की, यहाँ तक कि सारी मनुष्यता की बात करती है। सारी मनुष्यता के दुःखों, अभावों को उजागर करती है और यदि ऐसा नहीं है तो कविता के कविता होने के प्रति कवि को संशय है-
‘‘मेरे लिखे में
अगर दुक्ख है
और सबका नहीं
मेरे लिखे को आग लगे।’’ (लिखे में दुक्ख, पृ। 92)
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संग्रह का नामः लिखे में दुक्ख
कविः लीलाधर मण्डलोई
प्रकाशकः राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्यः 150/-
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संग्रह से कुछेक कविताएं
भाषा
मैं लिखता हूं
उस भाषा में
जो
मुझे जानती है
00
मंत्र
श्रमिक होती हैं मधुमक्खियां
फूलों से पराग
और मकरंद करती हैं इकट्ठा
अपने टांगों में बनी
उस टोकरी में
जो दीखती नहीं
मधुमक्खियां तैयार
करती हैं शहद
और करती हैं रक्षा
बाहरी आक्रमण से उसकी
घिरे हुए हैं हम अनेक दुश्‍मनों से
और रक्षा नहीं कर पाते
हमने मधुमक्खियों से सीखा नहीं यह मंत्र
00
खरपतवार
मेरा कोई खेत नहीं
मैं दोस्‍तों के खेतों में
करता था काम
जैसे मां
फसल आने पर
मैं खेत से बाहर था
जैसे खरपतवार
00
गांठ
यह बड़ी मजबूत गांठ है
एक गरीब की लगाई गांठ खोलना
इतना आसान नहीं
इसे खोले बिना अच्‍छी कविता लिखना
नामुमकिन है
00
चमत्कार
नटिनी के पांवों में चमत्‍कार है
लोग उसका
चलना नहीं
फिसलना देखना चाहते हैं
00
शर्म की बात
यह साधारण घटना नहीं
शर्म की बात है-राम
कि एक स्‍त्री ने
प्रतिरोध में
धरती की शरण ली
00
किताब
वह बुश के समय की किताब है
इसमें नहीं है
कोई दुक्‍ख
कोई अंधेरा
इसमें क्‍या है ?
जानते हैं जो लोग
वे चमकदार अंधेरा चाहते हैं
00
हथियार
सच अप्रिय होता है
यह कोई नहीं जान पाएगा कि
मैं मरूंगा इसी के साथ
दोस्‍त नहीं समझ पायेंगे
कि मैं उनके हिस्‍से की लड़ाई
इसी हथियार से लड़ रहा हूं
जब मैं लड़ाई के मैदान में हूं
वे सच की झूठी लड़ाइयों में मुब्‍तला हैं
00
लिखे में दुक्‍ख
मेरे लिखे में
अगर दुक्‍ख नहीं
और सबका नहीं
मेरे लिखे को आग लगे
00
आग
मेरी मेज पर
टकराते हैं
शब्‍द से शब्‍द
एक चिंगारी उठती है
और कविता में आग की तरह
फैल जाती है
आग नहीं तो कविता नहीं
00

शनिवार, जून 26, 2010

युवा पीढ़ी की कविता इन दिनों चर्चा में है

लगता है युवा हिन्‍दी कविता इन दिनों हिंदी साहित्‍य में बहस का प्रमुख मुद्दा है. एक तरफ युवा कविताओं पर विशेषांक आ रहे हैं, युवा कवियों की चर्चाएं हो रही हैं, युवा कवियों के धड़ाधड़ संकलन आ रहे हैं. दूसरी तरफ इस पीढ़ी की कविता पर प्रश्‍न-चिन्‍ह लगाती आलोचकों की एक टीम भी है. जो इस कविता को कटघरे में देखना और रखना चाहती है। ऐसी ही कुछेक पठनीय सामग्री आपको इन पत्रि‍काओं में मिल सकती है-
  • 1) परिकथा- युवा कविता विशेषांक - संपा. शंकर
युवा यात्रा की श्रृंखला की पहली कड़ी के रूप में आया यह अंक युवा हिंदी कविता की दशा-दिशा और‍ हिंदी कविता मेंउसकी उपस्थिति पर सार्थक बहस प्रस्तुत करता है. हिंदी कविता के पाठकों को यह विशेषांक अवश्यक पढ़नाचाहिए. विशेषकर बसंत त्रिपाठी और बोधिसत्व के आलेखों पर चर्चा होनी चाहिए. इसी अंक में वरिष्ठ कवियों ने भी युवा कविता पर अपने मत-अभिमत रखे हैं, ये इस अंक की विशेष उपलब्धि हैं।
  • 2) तहलका- साहित् विशेषांक 2010 - संपा. संजय दुबे
तहलका हालांकि एक पाक्षिक समाचार पत्रिका है, इस लिहाज से 'तहलका' के साहित्य विशेषांक का संयोजनस्वागत योग्य है. इस प्रकार के प्रयास साहित्य को आम पाठक से जोड़ने में मददगार होंगे. विशेषांक में शामिलरचनाकारों को लेकर लम्बी बहसें फेसबुक पर भी जारी हैं. इस अंक में युवा पीढ़ी पर निशाना साधते कुछेक विवादास्पद लेख हैं, कुछ बयान बाजियां हैं. अंक में संग्रहित कविताओं में कई महत्वपूर्ण नाम हैं, दो-एक नाम चौंकातें हैं, बावजूद तहलका के प्रयास की सराहना की जानी चाहिए।
  • 3) रचनाक्रम - प्रवेशांक - अतिथि संपा. ओम भारती, संपा. - अशोक मिश्र
रचनाक्रम का प्रवेशांक हमारे समय के महत्वपूर्ण लेखकों की रचनाशीलता को सामने लेकर आया है. वर्तमान हिंदीजगत के सभी बड़े नामों को जगह देने की कोशिश की गई है, या कहें प्रवेशांक से ही उन्हें जोड़ने की योजनाबद्धकोशिश की गई है. विष्णु नागर, विनोद कुमार शुक्ल, नरेन्द्र जैन, कुमार अम्बुज, लीलाधर मण्डलोई, दिनेश कुमारशुक्ल से लेकर कई नये-पुराने कवियों की रचनाएं अंक में शामिल है।

हिन्दी साहित्य में युवा पीढ़ी को सामने लाने का सबसे ज्यादा श्रेय रवीन्द्र कालिया जी को ही जाता है. कुछ जल्दी मेंनिकाले गये 'नया ज्ञानोदय' के इस युवा विशेषांक में कविता को कोई स्थान नहीं मिला. लेकिन इसकी भरपाई यशमालवीय की लम्बी कविता है।

  • 5) वागर्थ - मई 2010 - संपा. विजय बहादुर सिंह

‍ ‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍मजदूर दिवस पर संकलित कवितायें इस अंक का महत्वपूर्ण आकर्षण है। एकांत श्रीवास्तव और नरेन्द्र जैन कीकवितायें पठनीय हैं। इन्हीं के साथ प्रकाशित अन्य कवियों की कविताएं भी ध्यान खींचती

हैं।

  • 6) समावर्तन - जून 2010 - संपा.मुकेश वर्मा

‍ ‍‍‍‍‍ अपने रजत जयंती अंक तक आते आते समावर्तन ने एक स्‍थायी जगह हिंदी पाठकों में बना ली है। पत्रि‍का का नया स्‍तम्‍भ रेखांकित रचनाकार जिसका संपादन एवं चयन ख्‍यात कवि निरंजन श्रोत्रि‍य करते हैं, काफी चर्चित हो रहा है। स्‍तम्‍भ की तीसरी कड़ी में युवा कवि कुमार विनोद को प्रस्‍तुत किया है. कुमार विनोद का ताजा गजल संग्रह 'बेरंग है सब तितलियां' इन दिनों काफी चर्चा में है. उन्‍हें बधाई.

सोमवार, मई 10, 2010

पत्र-पत्रि‍काओं के ताजा अंकों में महत्‍वपूर्ण कविताएं

कथन
- संपा. संज्ञा उपाध्‍याय
'कथन' के ताजा अंक 66 अप्रैल-जून 2010 में शरद कोकास की कविताएं ख्‍यात कवि लीलाधर मण्‍डलोई की विशेष टिप्‍पणी के साथ.... दंगों के तल्‍ख यथार्थ और त्रासद दृश्‍यों पर भिन्‍न मिजाज और शिल्‍प की उल्‍लेखनीय कविताएं इसी अंक में अशोक कुमार पाण्‍डेय की लम्‍बी कविता 'मां की डिग्रियां' पठनीय कविता है।

समकालीन भारतीय साहित्‍य - संपा। ब्रजेन्‍द्र त्रि‍पाठी पत्रि‍का के ताजे अंक 148 मार्च-अप्रैल 10 को सुपरिचित कवियित्री अनामिका की कविता 'मातृभाषा' और यश मालवीय के गीत पठनीय बनाते हैं। वरिष्‍ठ कवि देवव्रत जोशी एवं मीठेश निर्मोही ने भी ख्‍याति के अनुरूप कवितायें लिखी हैं।

बया - संपा। गौरीनाथ अपने पहले ही अंक से 'बया' ने पाठक वर्ग में पहचान और विश्‍वसनीयता हासिल की है। ताजा अंक जनवरी-मार्च 2010 प्रतिरोध की संस्‍कृति और राजनीति पर केन्द्रित है। कविताओं के मामले में इस अंक में वरिष्‍ठ कवि विष्‍णु नागर, राग तेलंग, नीलोत्‍पल और रेखा चमोली की पठनीय कविताएं हैं। वरवर राव की कविताओं का आर. शांता सुंदरी ने श्रम से अनुवाद किया है. प्रदीप कांत भी अपनी आठ गजलों के साथ उपस्थि‍त हैं।

परिन्‍दे - संपा। राघव चेतन राय ताजा अंक - 6 फरवरी-मार्च 2010 अशोक कुमार पाण्‍डेय की कविताएं 'परिन्‍दे' के इस अंक की उपलब्धि कही जा सकती है। 'सबसे बुरे दिन', 'चाय, अब्‍दुल और मोबाइल', 'छोटे शहर की नदी', 'विष नहीं मार सकता हमें' के अलावा गुजरात पर तीन उल्‍लेखनीय कवितायें

परिकथा - संपा. शंकर अंक मार्च-अप्रैल 2010 'परिकथा' के इस अंक में महत्‍वपूर्ण कवि विजेन्‍द्र की कविताओं को पढ़ना एक नये अनुभव संसार से गुजरना है

अकार - संपा। गिरिराज किशोर ताजा अंक - 27 इस समय हिंदी की सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण वैचारिक पत्रि‍का के रूप में 'अकार' स्‍थापित हो चुकी है। अंक 25 से पत्रि‍का नये स्‍वरूप और कलेवर में निकल रही है। ताजा अंक 27 में युवा पीढ़ी के विश्‍वसनीय कवि अजेय की चार लम्‍बी और महत्‍वपूर्ण कविताओं को पढ़ा जाना चाहिये। नये विषय और विचार की ये कवितायें हिमालय के घूमंतू जीवन का दुःख का सिर्फ ब्‍यौरा भर नहीं देती, हमारे समय का सच और उस समय का विश्‍वसनीय अनुवाद करती हैं. इन कविताओं के लिए श्री अजेय को बधाई।

प्रगतिशील वसुधा - संपा. कमला प्रसाद ताजा अंक 84 प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रि‍का 'प्रगतिशील वसुधा' के नये अंक में वरिष्‍ठ कवि विष्‍णु नागर के ताजा संग्रह 'घर से बाहर घर' की 10 कविताओं और उनसे लीलाधर मण्‍डलोईजी की बातचीत इस अंक का विशेष संयोजन है। एक कवि और एक व्‍यक्ति के रूप में एक रचनाकार की ईमानदार पड़ताल, निजता की हद तक एक्‍सपोज करने की कोशिश इस बातचीत में है. इसे गंभीरता से पढ़ा जाना चाहिए।

वागर्थ - संपा. - विजय बहादुर सिंह

अप्रैल 10 अंक में उमाशंकर चौधरी की दो कवितायें 'प्रधानमंत्री को पसीना', और 'पुरूष की स्‍मृति में कभी बूढ़ी नहीं होती लड़कियां' पठनीय हैं। उमाशंकर युवा पीढ़ी के उन कवियों में है जिन्‍हें भविष्‍य की हिंदी कविता उम्‍मीद की तरह देखती है।

तद्भव - संपा.: अखिलेश

तद्भव अंक 21 में प्रकाशित सभी कविताएँ पठनीय हैं। चयन के मामले में अखिलेश जी कोई कोताही नहीं बरतते। अंक में ऋतुराज, तुषार धवल और हरीशचंद्र पाण्डेय भी अपनी उम्दा रचनाओं के साथ मौजूद हैं।

मंगलवार, फ़रवरी 16, 2010

कैलेण्डर पर मुस्कुराती हुई लड़की

मैंने देखा उसकी आँखों में एक अजीब-सी गमक है

आधुनिक बाजार की चकाचौंध से उपजी हुई।

एक शहरी चुनौती है

जो उसकी अधखुली देह से दमक रही है

और लगभग पारदर्शी कपड़ों से

छन कर पसर रही है पूरी दीवार पर।

कैलेण्डर पर मुस्कुराती हुई लड़की

अपनी देह की सुंदरता के दर्प में नहीं मुस्कुरा रही है

और ना ही इस आशय से कि

इस तरह वह कोई यौनिक तृप्ति या सुख पा रही है।

कैलेण्डर पर मुस्कुराती हुई लड़की

के मुस्कुराहट के रहस्य

इतने सीधे-सरल भी नहीं हो सकते

या उसे इतने साधारण अर्थों में नहीं लिया जा सकता

कि-‘वह अपनी इस मुस्कुराहट की

बकायदा तय कीमत पा रही है।’

इतने फीके या स्वादहीन भी नहीं हो सकते

इस मुस्कुराहट के रहस्य

कैलेण्डर पर मुस्कुराती हुई लड़की

मुस्कुरा रही है और मुस्कराते हुए उसके होंठों पर

एक किस्म का आमंत्रण है

और यह आमंत्रण

उसकी देह में समाने का नहीं

उसकी देह पर चुपड़े ‘प्रोडक्ट’ तक जाने का है।

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साभार - 'परिकथा' (नवलेखन अंक 2010)

शेष कविताओं के‍ लिए अंक देंखे।